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कविता

जरूर जाऊँगा कलकत्ता

जितेंद्र श्रीवास्तव


अभी और कितनी दूर है कलकत्ता
वही कलकत्ता
जहाँ पहुँचे थे कभी अपने मिर्जा गालिब
और लौटे थे जेहन में आधुनिकता लेकर

मैंने कितनी कितनी बार दुहराया है
वह शेर
किसी सबक की तरह
जिसमें दुविधा के बीच
जीवन की राह तलाशता है शायर

वहाँ सवाल ईमान और कुफ्र का नहीं
वहाँ सवाल धर्मी और विधर्मी का नहीं
वहाँ सवाल एक नई रोशनी का है

गालिब की यात्रा के सैकड़ों सालों बाद
मैं हिंदी का एक अदना-सा कवि
जा रहा हूँ कलकत्ता

मन में गहरी बेचैनी है
इधर बदल गए हैं हमारे शहर
वहाँ अदृश्य हो रहे हैं आत्मा के वृक्ष
अब कोई आँधी नहीं आती
जो उड़ा दे भ्रम की चादर

यह जादुई विज्ञापनों का समय है
यह विस्मरण का समय है
इस समय रिश्तों पर बात करना
प्रागैतिहासिक काल पर बात करने जैसा हो गया है

हमारे शहर बदल गए हैं
कलकत्ता भी बदल गया
पर अभी कितनी दूर है वह
बैठ-बैठे पिरा रही है कमर
बढ़ती जा रही है हसरत

कितना समय लगा होगा गालिब को
वहाँ पहुँचने में
महज देह नहीं
आत्मा भी दुखी होगी उनकी

उनके लिए कलकत्ता महज एक शहर नहीं था
उनकी यात्रा किसी सैलानी की यात्रा न थी

जब हम देखते हैं किसी शहर को
वह शहर भी देखता है हमको
कलकत्ते ने देखा होगा हमारे महाकवि को
उसके आँसुओं को
उसके दुख को

क्या कलकत्ते ने देखा होगा
हमारे महाकवि की आत्मा को
उसके भीतर की अजस्र कविता को
मैं कलकत्ते में
कैसे पहचानूँगा उस पत्थर को
जिस पर समय से दो हाथ करता
कुछ पल सुस्ताने के लिए बैठा होगा
हमारी कविता का मस्तक
रेख्ते का वह उस्ताद

मैं जी भर देखना चाहता हूँ कलकत्ता
इसलिए चाहे जितना पिराए कमर
चाहे जितनी सताए थकान

मैं लौटूँगा नहीं दिल्ली
जरूर जाऊँगा कलकत्ता।


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